पृथ्वी का हिन्दू वर्णन
हिन्दु धर्म में विष्णु पुराण के अनुसार पृथ्वी का वर्णन इस
प्रकार है। यह वर्णन श्रीपाराशर जी ने श्री मैत्रेय ऋषि से
कियी था। उनके अनुसार इसका वर्णन सौ वर्षों में भी नहीं
हो सकता है। यह केवल अति संक्षेप वर्णन है।
पृथ्वी के द्वीप
यह पृथ्वी सात द्वीपों में बंटी हुई है। वे द्वीप एस प्रकार से
हैं:-
1. जम्बूद्वीप
2. प्लक्षद्वीप
3. शाल्मलद्वीप
4. कुशद्वीप
5. क्रौंचद्वीप
6. शाकद्वीप
7. पुष्करद्वीप
ये सातों द्वीप चारों ओर से क्रमशः खारे पानी, इक्षुरस,
मदिरा, घृत, दधि, दुग्ध और मीठे जल के सात समुद्रों से घिरे
हैं। ये सभी द्वीप एक के बाद एक दूसरे को घेरे हुए बने हैं और
इन्हें घेरे हुए सातों समुद्र हैं। जम्बुद्वीप इन सब के मध्य में
स्थित है।
जम्बुद्वीप का वर्णन
सभी द्वीपों के मध्य में जम्बुद्वीप स्थित है।
सुमेरु पर्वत
इस द्वीप के मध्य में सुवर्णमय सुमेरु पर्वत स्थित है। इसकी
ऊंचाई चौरासी हजार योजन है< और नीचे काई ओर यह
सोलह हजार योजन पृथ्वी के अन्दर घुसा हुआ है। इसका
विस्तार, ऊपरी भाग में बत्तीस हजार योजन है, तथा नीचे
तलहटी में केवल सोलह हजार योजन है। इस प्रकार यह पर्वत
कमल रूपी पृथ्वी की कर्णिका के समान है।
सुमेरु के दक्षिण में
हिमवान, हेमकूट तथा निषध नामक वर्षपर्वत हैं, जो भिन्न
भिन्न वर्षों का भाग करते हैं।
सुमेरु के उत्तर में
नील, श्वेत और शृंगी वर्षपर्वत हैं।
इनमें निषध और नील एक एक लाख योजन तक फ़ैले हुए हैं।
हेमकूट और श्वेत पर्वत नब्बे नब्बे हजार योजन फ़ैले हुए हैं।
हिमवान और शृंगी अस्सी अस्सी हजार योजन फ़ैले हुए हैं।
वर्षों की स्थिति एवं वर्णन
मेरु पर्वत के दक्षिण में
पहला भारतवर्ष, दूसरा किम्पुरुषवर्ष तथा तीसरा हरिवर्ष है।
इसके दक्षिण में रम्यकवर्ष , हिरण्यमयवर्ष और तीसरा
उत्तरकुरुवर्ष है। उत्तरकुरुवर्ष द्वीपमण्डल की सीमा पार होने
के कारण भारतवर्ष के समान धनुषाकार है। इन सबों का
विस्तार नौ हजार योजन प्रतिवर्ष है। इन सब के मध्य में
इलावृतवर्ष है, जो कि सुमेरु पर्वत के चारों ओर नौ हजार
योजन फ़ैला हुआ है। एवं इसके चारों ओर चार पर्वत हैं, जो
कि ईश्वरीकृत कीलियां हैं, जो कि सुमेरु को धारण करती
हैं, वर्ना ऊपर से विस्तृत और नीचे से अपेक्षाकृत संकुचित
होने के कार्ण यह गिर पड़ेगा। ये पर्वत इस प्रकार से हैं:-
पूर्व में मंदराचल
दक्षिण में गंधमादन
पश्चिम में विपुल
उत्तर में सुपार्श्व
ये सभी दस दस हजार योजन ऊंचे हैं। इन पर्वतों पर ध्वजाओं
समान ग्यारह ग्यारह हजार योजन ऊंचे क्रमशह कदम्ब, जम्बु,
पीपल और वट वृक्ष हैं। इनमें जम्बु वृक्ष सबसे बड़ा होने के
कारण इस द्वीप का नाम जम्बुद्वीप पड़ा है। इसके जम्बु फ़ल
हाथियों के समान बड़े होते हैं, जो कि नीचे गिरने पर जब
फ़टते हैं, तब उनके रस की धारासे जम्बु नद नामक नदी वहां
बहती है। उसका पान करने से पसीना, दुर्गन्ध, बुढ़ापा अथवा
इन्द्रियक्षय नहीं होता। उसके मिनारे की मृत्तिका
(मिट्टी) रस से मिल जाने के कारण सूखने पर जम्बुनद नामक
सुवर्ण बनकर सिद्धपुरुषों का आभूषण बनती है।
वर्षों की स्थिति
मेरु पर्वत के पूर्व में भद्राश्ववर्ष है और पश्चिम में केतुमालवर्ष
है। इन दोनों के बीच में इलावृतवर्ष है। इस प्रकार उसके पूर्व
की ओर चैत्ररथ, दक्षिण की ओर गन्धमादन, पश्चिम की ओर
वैभ्राज और उत्तर की ओर नन्दन नामक वन हैं। तथा सदा
देवताओं से सेवनीय अरुणोद, महाभद्र, असितोद और मानस –
ये चार सरोवर हैं।
मेरु के पूर्व में
शीताम्भ, कुमुद, कुररी, माल्यवान, वैवंक आदि पर्वत हैं।
मेरु के दक्षिण में
त्रिकूट, शिशिर, पतंग, रुचक और निषाद आदि पर्वत हैं।
मेरु के उत्तर में
शंखकूट, ऋषभ, हंस, नाग और कालंज आदि पर्वत हैं।
मेरु पर्वत का वर्णन
मेरु पर्वत के ऊपर अंतरिक्ष में चौदह सहस्र योजन के विस्तार
वाली ब्रह्माजी की महापुरी या ब्रह्मपुरी है। इसके सब
ओर दिशाओं तथा विदिशाओं में इन्द्रादि लोकपालों के
आठ रमणीक तथा विख्यात नगर हैं। विष्णु पादोद्भवा
गंगाजी चंद्रमंडल को चारों ओर से आप्लावित करके
स्वर्गलोक से ब्रह्मलोक मं गिरतीं हैं, व सीता, अलकनंदा,
चक्षु और भद्रा नाम से चार भागों में विभाजित हो
जातीं हैं। सीता पूर्व की ओर आकाशमार्ग से एक पर्वत से
दूसरे पर्वत होती हुई, अंत में पूर्वस्थित भद्राश्ववर्ष को पार
करके समुद्र में मिल जाती है। अलकनंदा दक्षिण दिशा से
भारतवर्ष में आती है और सात भागों में विभक्त होकर समुद्र
में मिल जाती है। चक्षु पश्चिम दिशा के समस्त पर्वतों को
पार करती हुई केतुमाल नामक वर्ष में बहते हुए सागर में मिल
जाती है। भद्रा उत्तर के पर्वतों को पार करते हुए उतरकुरुवर्ष
होते हुए उत्तरी सागर में जा मिलती है। माल्यवान तथा
गन्धमादन पर्वत उत्तर तथा दक्षिण की ओर नीलांचल तथा
निषध पर्वत तक फ़ैले हुए हैं। उन दोनों के बीच कर्णिकाकार
मेरु पर्वत स्थित है। मर्यादा पर्वतों के बहिर्भाग में भारत,
केतुमाल, भद्राअश्व और कुरुवर्ष इस लोकपद्म के पत्तों के
समान हैं। जठर और देवकूट दोनों मर्यादा पर्वत हैं, जो उत्तर
और दक्षिण की ओर नील तथा निषध पर्वत तक फ़ैले हुए हैं।
पूर्व तथा पश्चिम की ओर गन्धमादन तथा कैलाश पर्वत
अस्सी अस्सी योजन विस्तृत हैं। इसी समान मेरु के पश्चिम
में भी निषध और पारियात्र – दो मर्यादा पर्वत स्थित हैं।
उत्तर की ओर निशृंग और जारुधि नामक वर्ष पर्वत हैं। ये
दोनों पश्चिम तथा पूर्व की ओर समुद्र के गर्भ में स्थित हैं।
मेरु के चारों ओर स्थित इन शीतान्त आदि केसर पर्वतों के
बीच में सिद्ध-चारणों से सेवित अति सुंदर कन्दराएं हैं,
देवताओं के मंदिर हैं, सुरम्य नगर तथा उपवन हैं। यहां किन्नर,
गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, दैत्य और दानव आदि क्रीड़ा करते हैं।
ये स्थान सम्पूर्ण पृथ्वी के स्वर्ग कहलाते हैं। ये धार्मिक
पुरुषों के निवासस्थान हैं, पापकर्मा लोग सौवर्षों में भी
यहां नहीं जा सकते हैं। विष्णु भगवान, भद्राश्ववर्ष में
हयग्रीव रूप से, केतुमालवर्ष में वराहरूप से, भारतवर्षवर्ष में
कूर्मरूप से रहते हैं। कुरुवर्ष में मत्स्य रूप से रहते हैं।
भारतवर्ष का वर्णन
समुद्र के उत्तर तथा हिमालय के दक्षिण में भारतवर्ष स्थित
है। इसका विस्तार नौ हजार योजन है। यह स्वर्ग अपवर्ग
प्राप्त कराने वाली कर्मभूमि है। इसमें सात कुलपर्वत हैं:
महेन्द्र, मलय, सह्य, शुक्तिमान, ऋक्ष, विंध्य और
पारियात्र।
यहां के भाग
भारतवर्ष के नौ भाग हैं: इन्द्रद्वीप, कसेरु, ताम्रपर्ण,
गभस्तिमान, नागद्वीप, सौम्य, गन्धर्व और वारुण, तथा यह
समुद्र से घिरा हुआ द्वीप उनमें नवां है।
विस्तार
यह द्वीप उत्तर से दक्षिण तक सहस्र योजन है। इसके पूर्वी
भाग में किरात और पश्चिमी भाग में यवन बसे हुए हैं।
मुख्य नदियां
चारों वर्णों के लोग मध्य में रहते हैं। शतद्रू और चंद्रभागा
आदि नदियां हिमालय से, वेद और स्मृति आदि पारियात्र
से, नर्मदा और सुरसा आदि विंध्याचल से, तापी, पयोष्णी
और निर्विन्ध्या आदि ऋक्ष्यगिरि से निकली हैं।
गोदावरी, भीमरथी, कृष्णवेणी, सह्य पर्वत से; कृतमाला और
ताम्रपर्णी आदि मलयाचल से, त्रिसामा और आर्यकुल्या
आदि महेन्द्रगिरि से तथा ऋषिकुल्या एवंकुमारी आदि
नदियां शुक्तिमान पर्वत से निकलीं हैं। इनकी और सहस्रों
शाखाएं और उपनदियां हैं।
यहां के वासी
इन नदियों के तटों पर कुरु, पांचाल, मध्याअदि देशों के; पूर्व
देश और कामरूप के; पुण्ड्र, कलिंग, मगध और दक्षिणात्य
लोग, अपरान्तदेशवासी, सौराष्ट्रगण, तहा शूर, आभीर एवं
अर्बुदगण, कारूष, मालव और पारियात्र निवासी; सौवीर,
सन्धव, हूण; शाल्व, कोशल देश के निवासी तथा मद्र, आराम,
अम्बष्ठ और पारसी गण रहते हैं। भारतवर्ष में ही चारों युग हैं,
अन्यत्र कहीं नहीं। इस जम्बूद्वीप को बाहर से लाख योजन
वाले खारे पानी के वलयाकार समुद्र ने चारों ओर से घेरा
हुआ है। जम्बूद्वीप का विस्तार एक लाख योजन है।
अन्य द्वीपों का वर्णन
प्लक्षद्वीप का वर्णन
प्लक्षद्वीप का विस्तार जम्बूद्वीप से दुगुना है। यहां बीच
में एक विशाल प्लक्ष वृक्ष लगा हुआ है। यहां के स्वामि
मेधातिथि के सात पुत्र हुए हैं। ये थे:
शान्तहय, शिशिर, सुखोदय, आनंद, शिव, क्षेमक, ध्रुव।
यहां इस द्वीप के भी भारतवर्ष की भांति ही सात पुत्रों
में सात भाग बांटे गये, जो उन्हीं के नामों पर रखे गये थे:
शान्तहयवर्ष, इत्यादि।
सात मर्यादापर्वत
इनकी मर्यादा निश्चित करने वाले सात पर्वत हैं: गोमेद,
चंद्र, नारद, दुन्दुभि, सोमक, सुमना और वैभ्राज।
सात नदियां
इन वर्षों की सात ही समुद्रगामिनी नदियां हैं अनुतप्ता,
शिखि, विपाशा, त्रिदिवा, अक्लमा, अमृता और सुकृता।
इनके अलावा सहस्रों छोटे छोटे पर्वत और नदियां हैं। इन
लोगों में ना तो वृद्धि ना ही ह्रास होता है। सदा
त्रेतायुग समान रहता है। यहां चार जातियां आर्यक, कुरुर,
विदिश्य और भावी क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और
शूद्र हैं। यहीं जम्बू वृक्ष के परिमाण वाला एक प्लक्ष
(पाकड़) वृक्ष है। इसी के ऊपर इस द्वीप का नाम पड़ा है।
इक्षु रस सागर
प्लक्षद्वीप अपने ही परिमाण वाले इक्षुरस के सागर से
घिरा हुआ है।
शाल्मल द्वीप का वर्णन
इस द्वीप के स्वामि वीरवर वपुष्मान थे। इनके सात पुत्रों :
श्वेत, हरित, जीमूत, रोहित, वैद्युत, मानस और सुप्रभ के नाम
संज्ञानुसार ही इसके सात भागों के नाम हैं। इक्षुरस सागर
अपने से दूने विस्तार वाले शाल्मल द्वीप से चारों ओर से
घिरा हुआ है। यहां भी सात पर्वत, सात मुख्य नदियां और
सात ही वर्ष हैं।
पर्वत
कुमुद, उन्नत, बलाहक, द्रोणाचल, कंक, महिष, ककुद्मान
नामक सात पर्वत हैं।
नदियां
योनि, तोया, वितृष्णा, चंद्रा, विमुक्ता, विमोचनी एवं
निवृत्ति नामक सात नदियां हैं।
सात वर्ष
श्वेत, हरित, जीमूत, रोहित, वैद्युत, मानस और सुप्रभ नामक
सात वर्ष हैं। यहां कपिल, अरुण, पीत और कृष्ण नामक चार
वर्ण हैं। यहां शाल्मल (सेमल) का अति विशाल वृक्ष है। यह
द्वीप मदिरा से भरे अपने से दुगुने विस्तार वाले सुरासमुद्र से
चारों ओर से घिरा हुआ है।
कुश द्वीप का वर्णन
इस द्वीप के स्वामि वीरवर ज्योतिष्मान थे। इनके सात
पुत्रों : उद्भिद, वेणुमान, वैरथ, लम्बन, धृति, प्रभाकर, कपिल
के नाम संज्ञानुसार ही इसके सात भागों के नाम हैं।
मदिरा सागर अपने से दूने विस्तार वाले कुश द्वीप से चारों
ओर से घिरा हुआ है। यहां भी सात पर्वत, सात मुख्य
नदियां और सात ही वर्ष हैं।
पर्वत
विद्रुम, हेमशौल, द्युतिमान, पुष्पवान, कुशेशय, हरि और
मन्दराचल नामक सात पर्वत हैं।
नदियां
धूतपापा, शिवा, पवित्रा, सम्मति, विद्युत, अम्भा और
मही नामक सात नदियां हैं।
सात वर्ष
उद्भिद, वेणुमान, वैरथ, लम्बन, धृति, प्रभाकर, कपिल नामक
सात वर्ष हैं। यहां दमी, शुष्मी, स्नेह और मन्देह नामक चार
वर्ण हैं। यहां कुश का अति विशाल झाड़ है। यह द्वीप अपने
ही बराबर के घी से भरे समुद्र से चारों ओर से घिरा हुआ है।
क्रौंच द्वीप का वर्णन
इस द्वीप के स्वामि वीरवर द्युतिमान थे। इनके सात पुत्रों :
कुशल, मन्दग, उष्ण, पीवर, अन्धकारक, मुनि और दुन्दुभि के
नाम संज्ञानुसार ही इसके सात भागों के नाम हैं। घी का
सागर अपने से दूने विस्तार वाले क्रौंच द्वीप से चारों ओर
से घिरा हुआ है। यहां भी सात पर्वत, सात मुख्य नदियां
और सात ही वर्ष हैं।
पर्वत
क्रौंच, वामन, अन्धकारक, घोड़ी के मुख समान रत्नमय
स्वाहिनी पर्वत, दिवावृत, पुण्डरीकवान, महापर्वत दुन्दुभि
नामक सात पर्वत हैं।
नदियां
गौरी, कुमुद्वती, सन्ध्या, रात्रि, मनिजवा, क्षांति और
पुण्डरीका नामक सात नदियां हैं।
सात वर्ष
कुशल, मन्दग, उष्ण, पीवर, अन्धकारक, मुनि और दुन्दुभि। यहां
पुष्कर, पुष्कल, धन्य और तिष्य नामक चार वर्ण हैं। यह द्वीप
अपने ही बराबर के दधिमण्ड (मठ्ठे) से भरे समुद्र से चारों ओर
से घिरा हुआ है। यह सागर अपने से दुगुने विस्तार वाले शाक
द्वीप से घिरा है।
शाकद्वीप का वर्णन
इस द्वीप के स्वामि भव्य वीरवर थे। इनके सात पुत्रों : जलद,
कुमार, सुकुमार, मरीचक, कुसुमोद, मौदाकि और महाद्रुम के
नाम संज्ञानुसार ही इसके सात भागों के नाम हैं। मठ्ठे का
सागर अपने से दूने विस्तार वाले शाक द्वीप से चारों ओर से
घिरा हुआ है। यहां भी सात पर्वत, सात मुख्य नदियां और
सात ही वर्ष हैं।
पर्वत
उदयाचल, जलाधार, रैवतक, श्याम, अस्ताचल, आम्बिकेय औ
अतिसुरम्य गिरिराज केसरी नामक सात पर्वत हैं।
नदियां
सुमुमरी, कुमारी, नलिनी, धेनुका, इक्षु, वेणुका और गभस्ती
नामक सात नदियां हैं।
सात वर्ष
जलद, कुमार, सुकुमार, मरीचक, कुसुमोद, मौदाकि और
महाद्रुम। यहां वंग, मागध, मानस और मंगद नामक चार वर्ण
हैं।
यहां अति महान शाक वृक्ष है, जिसके वायु के स्पर्श करने से
हृदय में परम आह्लाद उत्पन्न होता है। यह द्वीप अपने ही
बराबर के दुग्ध (दूध) से भरे समुद्र से चारों ओर से घिरा हुआ
है। यह सागर अपने से दुगुने विस्तार वाले पुष्कर द्वीप से
घिरा है।
पुष्करद्वीप का वर्णन
इस द्वीप के स्वामि सवन थे। इनके दो पुत्र थे: महावीर और
धातकि। क्षीर सागर अपने से दूने विस्तार वाले पुष्करद्वीप
से चारों ओर से घिरा हुआ है। यहां एक ही पर्वत और दो ही
वर्ष हैं।
पर्वत
मानसोत्तर नामक एक ही वर्षपर्वत है। यह वर्ष के मध्य में
स्थित है। यह पचास हजार योजन ऊंचाऔर इतना ही सब
ओर से गोलाकार फ़ैला हुआ है। इससे दोनों वर्ष विभक्त
होते हैं और वलयाकार ही रहते हैं।
नदियां
यहां कोई नदियां या छोटे पर्वत नहीं हैं।
दो वर्ष
महवीर खण्ड औ धातकि खण्ड। महावीरखण्ड वर्ष पर्वत के
बाहर की ओर है और बीच में धातकिवर्ष है। यहां वंग, मागध,
मानस और मंगद नामक चार वर्ण हैं।
यहां अति महान न्यग्रोध (वट) वृक्ष है, जो ब्रह्मा जी का
निवासस्थान है यह द्वीप अपने ही बराबर के मीठे पानी से
भरे समुद्र से चारों ओर से घिरा हुआ है।
सभी सागर
यह सभी सागर सदा समान जल राशि से भरे रहते हैं, इनमें
कभी कम या अधिक नही होता। हां चंद्रमा की कलाओं
के साथ साथ जल बढ़्ता या घटता है। यह जल वृद्धि और
क्षय 510 अंगुल तक देखे गये हैं।
मीठे सागर के पार
पुष्कर द्वीप को घेरे मीठे जल के सागर के पार उससे दूनी
सुवर्णमयी भूमि दिल्खायी देती है। वहां दस सहस्र योजन
वाले लोक-आलोक पर्वत हैं। यह पर्वत ऊंचाई में भी उतने ही
सहस्र योजन है। उसके आगे पृथ्वी को चारों ओर से घेरे हुए
घोर अन्धकार छाया हुआ है। यह अन्धकार चारों ओर से
ब्रह्माण्ड कटाह से आवृत्त है। अण्ड-कटाह सहित सभी
द्वीपों को मिलाकर समस्त भू-मण्डल का परिमाण पचास
करोड़ योजन है।
जम्बूद्वीप का समतल प्रारूप
चित्र:Meru paravat.jpg
मेरु पर्वत की स्थिति उत्तरी ध्रुव के निकट
महाभारत अनुसार
महाभारत में पृथ्वी का पूरा मानचित्र हजारों वर्ष पूर्व ही
दे दिया गया था। महाभारत में कहा गया है कि यह पृथ्वी
चन्द्रमंडल में देखने पर दो अंशों मे खरगोश तथा अन्य दो अंशों
में पिप्पल (पत्तों) के रुप में दिखायी देती है-
एक खरगोश और दो पत्तो का चित्र
चित्र को उल्टा करने पर बना पृथ्वी का मानचित्र
उपरोक्त मानचित्र ग्लोब में
उपरोक्त मानचित्र ११वीं शताब्दी में रामानुजचार्य
द्वारा महाभारत के निम्नलिखित श्लोक को पढ्ने के बाद
बनाया गया था-
“
सुदर्शनं प्रवक्ष्यामि द्वीपं तु कुरुनन्दन। परिमण्डलो
महाराज द्वीपोऽसौ चक्रसंस्थितः॥
यथा हि पुरुषः पश्येदादर्शे मुखमात्मनः। एवं सुदर्शनद्वीपो
दृश्यते चन्द्रमण्डले॥ द्विरंशे पिप्पलस्तत्र द्विरंशे च शशो
महान्।
”
—वेद व्यास, भीष्म पर्व , महाभारत
अर्थात
हे कुरुनन्दन ! सुदर्शन नामक यह द्वीप चक्र की भाँति
गोलाकार स्थित है, जैसे पुरुष दर्पण में अपना मुख देखता
है, उसी प्रकार यह द्वीप चन्द्रमण्डल में दिखायी देता
है। इसके दो अंशो मे पिप्पल और दो अंशो मे महान शश
(खरगोश) दिखायी देता है। अब यदि उपरोक्त संरचना
को कागज पर बनाकर व्यवस्थित करे तो हमारी पृथ्वी
का मानचित्र बन जाता है, जो हमारी पृथ्वी के
वास्तविक मानचित्र से बहुत समानता दिखाता है।
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